रविवार, 6 दिसंबर 2015

फ़िराक गोरखपुरी – बहुत पहले से उन कदमों की आहट



उर्दू भाषा के श्रेष्‍ठ रचनाकार फ़िराक गोरखपुरी (मूल नाम रघुपति सहाय) (28 अगस्त 1896 - 3 मार्च 1982) गोरखपुर के रहने वाले थे। राम कृष्ण की कहानियों के शुरुआती अध्‍ययन के बाद उनकी शिक्षा अरबी, फारसी और अंग्रेजी में हुई। उनके पिता भी जाने माने शायर थे।
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वंदे मातरम के रचयिता - बंकिम चंद्र चट्टोपाध्‍याय


पुरातनपंथी बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्‍मे ऋषि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्‍याय (1838 – 1894) श्रेष्‍ठ कवि, लेखक और पत्रकार थे। उनके भाई संजीब चंद्र चट्टोपाध्‍याय भी उपन्‍यासकार थे। वे कलकत्‍ता विश्‍वविद्यालय के शुरुआती ग्रेजुएट्स में से एक थे। बाद में उन्‍होंने वकालत की डिग्री भी ली। वे मेधावी छात्र थे। पढ़ने लिखने में उनका मन लगता था। खाली समय में वे संस्‍कृत भी सीखते।
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कारपेंटरी से ज्ञानपीठ पुरस्‍कार तक का सफ़र –गुरदयाल सिंह


गुरदयाल सिंह (10 जनवरी, 1933 -)  आम आदमी की बात कहने वाले पंजाबी भाषा के विख्यात कथाकार हैं।
वे परिवार के पहले लड़के थे जो स्‍कूल जाने लगे थे। वे लिखते हैं कि स्‍कूल मेरे लिए ऐेसा जेलखाना था जिसके बारे में यही सोचता कि यहां से कभी रिहाई मिल जायेगी। बचपन से ही पारिवारिक बढ़ईगिरी के धंधे में लग जाना पड़ा। अभी वे 12-13 बरस के ही थे और कुछ सोचने-समझने लायक़ हो रहे थे, घरेलू हालात के चलते उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा, ताकि बढ़ई के धंधे में वह अपने पिता की मदद कर सकें।
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दिविक रमेश – शहतूत के पेड़़ पर बैठ कर लिखता था कविताएं



मुझे याद आ रहे हैं वे शुरुआत के दिन जब मुझे छिप छिप कर लिखना होता था और अपने लिखे को भी छिपा कर रखना होता था। स्पष्ट है तब मुझे एकांत में ही लिखना होता था। उस समय रात का समय सबसे अनुकूल प्रतीत होता था। बाद में दिन में नौकरी करने और रात में बी.ए.-एम.ए. करने की विवशता ने रात में लिखना मेरी आदत बना दी। मेरी कितनी ही रचनाएं, रात में, और वह भी अंधेरे में लिखी गई हैं। बहुत बार खुले आसमान के नीचे। शायद तारों का भी हाथ रहा होगा। आसपास जब सब सो रहे होते तो मैं कोरे कागज पर अंदाजे से मोटे-मोटे अक्षरों में लिख लेता। फिर दिन के एकांत में उसे अंतिम रूप दे लेता। एक और बात याद आयी। शुरू के दिनों की। घर के सामने एक शहतूत का पेड़ था। कितनी ही रचनाएं उसकी भी देन हैं। उस पर
चढ़ कर शाखाओं के बीच गद्दी बिछाकर बैठ जाता, स्कूली पढ़ाई के बहाने। और लिखी जाती कविताएं आदि। मेरे रचनात्मक साहित्य का वह अच्छा प्रेरणा स्थल रहा है। दिन में वहां बैठकर इत्मीनान से सोचा जा सकता था और लिखा भी।
विवाह हुआ। काफी बड़ा होने तक, मुझे शांत एकांत ही जरूरी लगता रहा। बहुत बार खिड़की से पेड़ों को देर तक ताकते रहने ने भी मुझे रचनात्मक बनाया है। जाने कब पेड़ो की टहनियों और पत्तों से रचना मस्तिष्क में और फिर कागज पर उतरने लगती। एक समयावधि में, खास कर कविता के लिए, बीड़ी जरूरी सी लगने लगी थी लेकिन वह जरूरत बहुत जल्दी छूट भी गई। महसूस किया कि काफी देर तक बीड़ियां पीने और माथे को देर तक दोनों हाथों से दबाए रखने के बावजूद कुछ नहीं लिखा गया। बाद में.लिखने का कोई खास समय नहीं रहा।
विशेष रूप से कविता-रचना के लिए जो मेरी विशेष विधा है। कोई भी पंक्ति कौंधती तो लिख लेता हूं-जितनी भी कौंधती हैं लिख लेता हूं। बाद में, थोड़े एकान्त में लिख लेता हूं। अब जरूरी नहीं अपनी स्टडी में ही बैठ कर लिखूं। स्थान गेस्ट हाऊस या होटल का कमरा हो सकता है, रेल का डिब्बा हो सकता है, किसी मित्र या परिजन का घर भी हो सकता है।
मेरे काव्य नाटक ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ की रचना का प्रारम्भ रेल के सफर में ही हुआ था। पर रचना पूरी घर पर आकर ही हो पाती है। अब घर में किसी अन्य की मौजूदगी अधिक दखल पैदा नहीं करती जैसे पहले पैदा करती थी लेकिन उस मौजूदगी बोलना व्यवधान का काम जरूर करता है और रचना बनने से चूक जाती है। कुल मिलाकर बात एकान्त में ही बनती है। पहले तो मैं अपनी स्टडी के दरवाजे भी बंद करके बैठता था। किसी का खटखटाना भी व्यवधान लगता था। यूं जब भी पहाड़ों या समुद्र के किनारों से लौटा हूं अधिक रचनामय हुआ हूं। मुझे तो हवाई जहाज से बादलों के समुन्द्र ने भी रचना के लिए प्रेरित किया है। शुरू शुरू में जब कहानियां लिखता था तो याद आ रहा है कि मुझे इतना समय और ऐसा स्थान चाहिए होता था जहां मैं एक ही बार में पूरी कहानी लिख लूं। लिखते समय मुझे चाय आदि के लिए पूछा जाना भी रास नहीं आता। एक और बात। बहुत बार न लिखने के अंतराल आए हैं और लगने लगा है कि बस अब नहीं लिखा जाएगा। लेकिन रचनात्मक पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते न जाने कब फिर रचना लौट आई है। पुस्तक के पन्ने एक तरफ रह गए हैं और मैं रचना की प्रक्रिया का अंग बन गया हूं। बड़ी विचित्र और हाथ में पूरी तरह न आने वाली चीज़ है यह रचना प्रक्रिया। इतना तो कह ही सकता हूं कि भले ही मेरी रचनाओं में सामाजिक सरोकार बुनियादी तौर पर रहते हों लेकिन प्रकृति और प्राकृतिक सम्पदा की निकटता ने मुझे रचना के लिए प्रेरित किया है।

मोबाइल – 099101 77099

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

जैक लंडन – कहां कहां से गुज़र गया

जितनी रोमांचक और दिल पर सीधे असर करने वाली जैक लंडन की कहानियां होती हैं, उससे कहीं ज्‍यादा रोमांचक और दिल दहला देने वाली जैक लंडन (जनवरी 12, 1876 – नवम्‍बर  22, 1916) की खुद की कहानी है। सैन फ्रांसिस्‍को में वे एक अनब्‍याही मां की कोख से जन्‍मे थे। बड़े होने के बाद एक बार जब उन्‍हें मां के कागजों से उसकी आत्‍महत्‍या की कोशिश और अपने संभावित पिता के बारे में कुछ जानकारी मिली तो जैक ने विलियम चैने नाम के एक वकील को कन्‍फर्म करने के लिए खत लिखा। चैने ने बड़े भोलेपन से जवाब दिया था – बेटे, मैं तो नामर्द हूं। तुम्‍हारा पिता कैसे हो सकता हूं। हांफलां आदमी तुम्‍हारी मां के यहां खूब आया करते थे, वे ही शायद तुम्‍हारे पिता हों। 

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जयश्री रॉय - मेरे लेखन का सफर



2010 में ब्रेस्ट कैंसर हुआ तो लगा, इतना कुछ अपने भीतर ले कर
चली गई तो मर कर भी मुक्ति नहीं मिलेगी। उन दिनों हाथ में मेडिकल
रिपोर्ट्स की फाइल ले कर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक अपनी
ज़िंदगी कि मीयाद पूछती फिर रही थी। केमो के दौरान अस्पताल के
बिस्तर पर 26 साल के अंतराल के बाद एक कहानी लिखी जो हंस में
छपी। इसके बाद लिखने-छपने का सिलसिला चल पड़ा। मेरे शब्द हाथ
पकडकर मुझे मृत्यु की काली सुरंग से खींच जिंदगी की ओर ले चला।
दूसरों के लिए लेखन क्या है मैं नहीं जानती, मेरे लिए यह जीने की एक
कोशिश है!
लिखने के लिए मुझे कोई सहूलियत नहीं मिलती। बस काम और
जिम्मेदारियों के बीच जहां थोड़ा समय मिल जाये। खाना बनाते, घर
सम्हालते... डायनिंग टेबल पर डायरी-पेन पड़े रहते हैं। कूकर की दो
सीटी के बीच, दाल में छौंक लगाते... दो बज गए बच्चे आ जाएँगे स्कूल
से, महरी नहीं आई, जूठे बर्तनों की ढेर पड़ी है... मेरी कहानियों से जली
दाल की महक आए तो अचरज नहीं!
रात को मैं बेहतर लिखती हूँ। अक्सर बारह बजे के बाद। सारी-सारी रात!
डॉक्टर की सख़्त मनाही के बावजूद। पहले हाथ से, अब कम्प्यूटर पर।
कहानियाँ प्रायः एक सीटिंग में। शायद ही कभी कोई एडिटिंग। बेहद
इंपल्सिव। धैर्य का भी अभाव। जब लिखने का मूड बन जाता है, किसी
काम में मन नहीं लगता जब तक कि लिख ना लूँ। अपना लिखा मैं
छपने से पहले किसी को दिखाती नहीं। सिरजने में ही सारा सुख।
छपना, ना छपना महत्वपूर्ण नहीं। टोटका आदि में यकीन नहीं। तीन
महीने पहले स्ट्रोक में जिस्म का बायाँ हिस्सा प्रभावित हुआ है। बाएँ
हाथ से लिखती/टाइप करती थी। स्ट्रोक के एक महीने के अंदर एक
कहानी लिख कर पूरा किया! जैसा कि पहले भी कहा, लिखना मेरे लिए
जीने की एक कोशिश है!
मुझे शब्दों से प्यार रहा है, किस हद तक कह कर समझाना मुश्किल!
मुझे लगता है, अब तक के जीवन में मैंने अपने हिस्से का आधा समय
सपने देखने और कल्पना लोक में विचरण करते हुये बिताया है। बचपन
में जाड़े के दिनों रज़ाई ओढ़ कर दिन चढ़े तक, गर्मियों में खुली छत पर
चाँद को तकते हुए... चाँद को तकते रहने की मेरी इस ‘अजीब-सी’
आदत की वजह से घर में कोई मुझे ‘मून गर्ल’ तो कोई ‘चकोरी’ कह
कर चिढ़ाया करता था। सेंसेटिव और संकोची स्वभाव की होने के कारण
कागज़ में खुद को व्यक्त करना ज़्यादा सहज प्रतीत होता था। तो छिप-
छिप कर लिखती थी और बिस्तर के नीचे रख देती थी। वर्षों यही
किया। एस एस सी के बाद गर्मियों की लंबी दोपहरें काटने के लिए पत्र-
पत्रिकाओं में पत्र आदि लिखने लगी और पुरस्कृत भी होने लगी। साथ
ही रेडियो सिलॉन में मेरे लिखे कई लंबे कार्यक्रम प्रसारित हुए। यह सब
बहुत उत्साहवर्धक था। धर्मयुग, अवकाश जैसी पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ
छपीं। संपादकों, पाठकों के गट्ठर बांध कर पत्र आते। मैं अचानक बैठे-
बिठाये लेखिका बन गई थी! वह एक अलग ही तरह का समय था! मगर
कॉलेज जॉइन करते ही लिखना छूट गया। पूरे 26 सालों के लिए!
जिम्मेदारियाँ मेरे हिस्से कुछ ज़्यादा ही आईं। ना जाने किस-किस का
जीवन मैंने जिया और मेरा जीवन कोई और। यदि जीवन में निरंतर
आने वाली दुश्वारियां कोई दुर्भाग्य या नियति ना हो कर महज संयोग
थीं तो यह संयोग कुछ ज़्यादा ही घटा मेरे साथ। जो किया, जितना
किया सबके लिए वह मेरा अपना कंसर्न था मगर इससे बंधी तो रह ही
गई। सालों मन का कुछ कर ना सकी। लेखन भी। इसके लिए जिस
मनःस्थिति की ज़रूरत होती है उसका नितांत अभाव रहा। मन में
संवेदनाएं उमड़ती-गुमड़तीं, एक क्रिएटिव एंज़ाइटी में रात-दिन परेशान
मगर कभी कुछ लिख ना सकी। ‘राइटर्स ब्लॉक’ जैसी स्थिति! कई बार
भीतर की बेचैनी से निजात पाने के लिए कागज-कलम ले कर घंटों बैठी
कागज पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती रही मगर एक शब्द लिख ना
सकी। सोचती थी जिस शब्द से मैंने इस शिद्दत से प्यार किया, जब
भी बुलाऊंगी, वह मुझ तक दौड़ा चला आयेगा। मगर मैं गलत थी, मेरे
शब्द मुझसे रूठ गए थे! निराशा का वह अजब दौर था। जैसे कोई अर्से
से प्रसव पीड़ा में हो मगर अपने बच्चे को जन्म ना दे सके। कई बार
बैठ कर रोती थी...
बीमार माँ-बाप, परिवार और बच्चों की देख-भाल के लिए लेक्चरार की
नौकरी छोड़नी पड़ी। बेटे के 15 साल के होने तक एक पत्रिका पलट कर
देख ना सकी। एम ए करने के बाद हिन्दी साहित्य से कोई संपर्क नहीं
रहा। 2010 में जीवन में पहली बार ‘हंस’ पत्रिका देखी जिस में ‘मुबारक
पहला कदम’ में मेरी पहली कहानी छपी थी।